यही जिज्ञासा - यही मंजिल | रोशनलाल गोरखपुरिया

जीवन के मुख्य दो आयाम हैं, जीने की लालसा और जानने की जिज्ञासा। जीना तो सभी चाहते हैं किन्तु जानना कोई-कोई ही चाहता है।

जीवन के मुख्य दो आयाम हैं, जीने की लालसा और जानने की जिज्ञासा। जीना तो सभी चाहते हैं किन्तु जानना कोई-कोई ही चाहता है। किसी शायर की चंद पक्तियाँ याद आ रही हैं जिन्होंने शब्दों के माध्यम से सेतु बनाने का सार्थक प्रयास किया हैः


नफरतों की आग में, यूँ बस्तियाँ बना दी गईं 

घास पर जलती हुई, ज्यों तीलियाँ रख दी गईं

मस्जिदों से मंदिरों तक का, सफर कुछ भी न था

बस हमारे ही दिलों में दूरियाँ, बना दी गईं

हिन्दू-मुस्लिम ने कभी जब, एकता का मन किया

धर्म की दोनों तरफ, बारीकियाँ बता दी गईं।।


शायर ने शायरी में धर्म की बारीकियों का जिक्र किया है। आलेख का शीर्षक ‘यही जिज्ञासा-यही मंजिलं’ के केन्द्र बिन्दु में धर्म ही है। शायद हम धर्म के मर्म से अनभिज्ञ हैं न विश्वास धर्म है और न ही अविश्वास। विश्वास आस्तिकता की निशानी है और अविश्वास नास्तिकता की, जबकि धर्म इन दोनों से परे है। धर्म है जिज्ञासा, मुमुक्षा जहाँ न मानने की जल्दी है और न ही मनाने की जबरदस्ती, जो अनुभव हो उसे स्वीकार करना। जैसे एक नेत्रहीन व्यक्ति प्रकाश के संदर्भ में विश्वास करता है अनुभव नहीं, परंतु आँख वाला व्यक्ति जानता है प्रकाश है। ये उसका अनुभव है।


एक बार भगवान बुद्ध के पास एक आदमी आया। वह बहुत बड़ा धनी था! उसने बुद्ध को कहा कि आपकी बातों से मैं प्रेरित होकर अपना सारा जीवन मनुष्य के कल्याण के लिए देना चाहता हूँ। बुद्ध ने उसे गौर से देखा और कहते हैं, बुद्ध के जीवन में पहली बार किसी ने उनकी आँखों में आँसू देखे। वह सेठ तो बहुत हैरान हुआ। उसने कहा आपकी आँखों में आँसू! क्या मैंने कुछ गलत कह दिया? बुद्ध ने कहा- नहीं, मै इसलिए चिंतित और दुखी हो गया कि तुम्हारे पास है ही क्या जो तुम मानव-जाति का कल्याण करोगे? अभी तुम्हारा खुद का कल्याण तो हुआ नहीं, तो दूसरों का कल्याण क्या करोगे। ये तो ऐसी बात हो गई कि बुझा दीया और दीयों को जलाने चला! मुर्दा, लोगों को जीवन देने चला! खतरा यही है कि बुझा दिया कहीं और जले दीयों को न बुझा दे। उपरोक्त कहानी बहुत ही सुंदर संदेश दे रही है। आज जहाँ देखो, जिसे देखो मानव कल्याण की बात कर रहा है परंतु प्यास किसे है? प्यास का अभिप्राय है जिज्ञासा। ये जिज्ञासा ही है जो मानव को मानवता का बोध कराती है।


अष्टावक्र ने राजा जनक की जिज्ञासा को समाप्त करने के लिए कहा कि संसार को त्यागने के बाद ही परमात्मा को जाना जा सकता है। संसार के त्याग का सभी ने अपने-अपने तरीके से सही-गलत मतलब निकाल लिया। कहीं तो वस्त्रों के त्याग को ही संसार का त्याग मान लिया। जबकि संसार का त्याग संसार को जानने के बाद ही हो सकता है। जब प्रकृति और संसार परमात्मा के हैं तो हमने त्याग किसका किया। त्याग तो अपनी वस्तु का होता है। जो हमारा है ही नहीं फिर उसका त्याग कैसा? इसको जान लेने के बाद ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। जब ज्ञान प्राप्त होता है तब अलग-अलग प्राणियों में बंटी आत्मा में एक परमात्मा ही दिखाई देने लगता है। संसार का हर जीव आत्ममय होकर परमात्मा हो जाता है। इसके लिए मर्म का जानना जरूरी है।


गीता में भगवान ने इस बात को स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मर्म के जाने बिना किए गए तप से शास्त्रों का ज्ञान श्रेष्ठ है। शास्त्रों के ज्ञान से भी मेरे स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है। त्याग से तत्काल शांति मिल जाती है शांति और कुछ भी नहीं वह मेरा ही एक नाम है। यह बात तो सभी जानते हैं कि जो आत्मा हमारे शरीर में है वह परमात्मा की है। उस आत्मा को जानने के बाद ही हम जान पाएंगे कि संसार में जो कुछ भी है वह परमात्मा का है। फिर इसके बाद कुछ जानना शेष नहीं रह जाता है। यही जिज्ञासा है और यही मंजिल।


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रोशनलाल गोरखपुरिया
लेखक | आध्यात्मिक
विचारक | सामाजिक कार्यकर्ता 

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