Aspects to build a strong Immune System as per Ayurveda | Gurudev Sri Sri Ravi Shankar
- Nov 19, 2020
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अब तो यज्ञ को मानसिक रोगों से मुक्ति दिलाने वाली अचूक औषधि समझा जाने लगा है। कई देशों में यज्ञ–चिकित्सा दिनों–दिन लोकप्र...
रोगों की जड़ शरीर में नहीं, मन में होती है। यह मानकर अपने मानसिक संतुलन को सुस्थिर रखा जाय, तो कोई शारीरिक रोग होने पर भी वह जीवन क्रम सामान्य ढंग से चलाया जा सकता है। मानसिक संतुलन साधने के लिए यह मान्यता बड़ी ही उपयोगी सिद्ध हो सकती है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि उस तथ्य को सभी रोगों में एक समान लागू होते देखा जा सकता है। उनकी प्रतिक्रिया, लक्षण शरीर पर भले ही दिखाई दें, लेकिन उनकी जड़ मनुष्य के मन में होती है। वृक्ष की जड़ जिस प्रकार जमीन के भीतर होती है और उसका तना, शाखाएँ, पत्ते, फूल, फल और शिखर आकाश में होते हैं। इसी प्रकार रोगों का स्वरूप, उत्पात, प्रतिक्रिया शरीर के तल पर दिखाई देते हैं, लेकिन उनका मूल मन में होता है। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए महर्षियों ने हजारों वर्ष पूर्व कहा है। ‘प्रज्ञापराधं रोगस्य मूल कारणम्’ अर्थात् प्रज्ञापराध, मानसिक अस्त–व्यस्त, असंतुलित मनःस्थिति, चिन्ता, क्षोभ और अन्यान्य मानसिक विकृतियाँ समस्त रोगों का मूल कारण है। यदि अपनी मानसिक स्थिति को सँभाला जाय, उसे शांत–संतुलित बनाया जाय, तो शरीर को पूर्ण स्वस्थ, निरोग और पुष्ट रखा जा सकता है। शरीर का निदान–परीक्षण बाद में, पहले मन को ही स्वस्थ बनाये रखने की बात सोचनी चाहिए। इसके लिए प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों से परे मन को हलका–फुलका बनाने वाली किसी भी विधि का सहारा लिया जा सकता है। इसमें वैदिक कर्मकाण्ड द्वारा संपादित यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यज्ञोपैथी, ऐलौपैथी, नेचरोपैथी, होम्योपैथी, बायोकेमिकल चिकित्सा पद्धति आदि चिकित्सा प्रणालियों की तरह विभिन्न देशों में यज्ञों से भी रोगों के उपचार की विधि खोज ली गयी है और उसका सफलतापूर्वक उपयोग किया जाने लगा है।
अब तो यज्ञ को मानसिक रोगों से मुक्ति दिलाने वाली अचूक औषधि समझा जाने लगा है। कई देशों में यज्ञ–चिकित्सा दिनों–दिन लोकप्रिय होती जा रही है। इस चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत रोगियों को यज्ञ के वायु से निकलने वाली तरंगों को श्वास–प्रश्वास के माध्यम से ही देने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। पागल और विक्षिप्त समझे जाने वाले व्यक्तियों की मस्तिष्कीय क्षमता पहले ही प्रयास में इस योग्य तो नहीं बन पाती कि वे बताई गयी विधि का अक्षरशः पालन कर लें; लेकिन धीरे–धीरे वे एक–दूसरे के श्वास–प्रश्वास करने की शैली को पहचानने लगते हैं और तथा उन श्वास–प्रश्वास (प्राणायाम) द्वारा ही उत्तर देने लगते हैं। प्राणायाम के माध्यम से रोगी का यह क्रम धीरे–धीरे शरीर के अंतःस्थल तक भी पहुँच जाता है और परिणामतः रोगी के रोगमुक्त होने में दिनों–दिन सफलता प्राप्त होने लगती है।
जिन व्यक्तियों को विक्षिप्त मान लिया जाता है और पागल समझकर समाज से अलग कर दिया जाता है, ऐसे व्यक्ति का दिमाग वास्तव में बेकार नहीं हो जाता है। वस्तुतः लोग भावनाओं पर अत्यधिक ठेस लगने के कारण मस्तिष्कीय संतुलन खो बैठते हैं। कभी–कभी यह असर इतना गहरा हो जाता है कि वह व्यक्ति समाज की धारा से पूरी तरह कट–पिटकर अपने आप में सिमट जाता है। यज्ञ में भावनाओं को जाग्रत् करने और सम्बल देने को ही नहीं, उनके परिष्कृत बनाने तथा उनका संतुलन साधने की प्रभावशाली क्षमता है। शरीरशास्त्रियों की मान्यता है कि मस्तिष्क के कुछ भाग भावनाओं को उत्तेजित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यज्ञ से उत्पन्न तरंगों का उन अंगों पर बहुत अच्छा और अनुकूल प्रभाव पड़ता है। यज्ञ द्वारा मस्तिष्क की उन सिकुड़ी हुई मांस–पेशियों को शक्ति मिलती है। फलतः व्यक्ति को भावनात्मक बल और आनन्द मिलता है। वे पेशियाँ जो कारणवश निष्क्रिय हो जाती हैं, पुनः सक्रिय हो उठती हैं। इसी नियम को एक विधि– व्यवस्था के साथ रोग चिकित्सा के लिए अपनाया जाता है और अब तो जटिल से जटिल रोगों का उपचार भी यज्ञोपैाथी द्वारा किये जाने की विधियाँ खोज ली गयी हैं।
यज्ञोपैथी के माध्यम से रोगोपचार की यह पद्धति तो कुछ वर्षों पूर्व ही आविष्कृत की गयी है। अब चिकित्साशास्त्रियों का ध्यान इस दिशा में भी गया है। बाहरी उपकरण इतना प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं, तो स्वयं अपनी ही कर्म (यज्ञ करना) तो और अधिक प्रभाव उत्पन्न करते होंगे। इस विषय पर चिकित्साशास्त्रियों का ध्यान भले ही अभी गया हो, परन्तु यह तो प्राचीनकाल से जान, समझ लिया गया है कि यज्ञ के द्वारा समस्त रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है। यज्ञ मनुष्य को न केवल हलका–फुलका व प्रफुल्लित कर देता है, वरन् उसकी कई चिंताओं, दबावों और तनावों तथा समस्याओं के बोझ को भी बड़ी सीमा तक समाप्त कर देता है।
भारतीय मनीषियों ने यज्ञ की इस शक्ति को हजारों वर्ष पूर्व पहचान कर उसका उच्च उद्देश्यों के लिए प्रयोग करना आरंभ कर दिया था। यज्ञ साधना का अपना एक स्वतंत्र विज्ञान है। कोई आश्चर्य नहीं कि यज्ञ का स्वास्थ्य प्रयोजन के लिए उपयोग करते–करते विज्ञान इस तथ्य को भी बहुत जल्दी स्वीकार करने की स्थिति में आ जाय कि यज्ञ मानव मात्र, प्राणिमात्र के लिए सर्वतोभावेन कल्याणकारी है। वर्तमान की अनेकानेक समस्याओं का समाधान उसमें सन्निहित है।
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डॉ॰ प्रणव पंड्या
गायत्री परिवार के संचालक हैं। इसके अतिरिक्त वे देव संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति, ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के निदेशक तथा अखण्ड ज्योति पत्रिका के सम्पादक भी हैं।|