शास्त्रों के ज्ञान का महत्व | रोशनलाल गोरखपुरिया

संसार में कोई भी सभ्यता, समाज और सम्प्रदाय हो, उसके मूलाधार में शास्त्र ही सर्वोपरि होते हैं।



संसार में कोई भी सभ्यता, समाज और सम्प्रदाय हो, उसके मूलाधार में शास्त्र ही सर्वोपरि होते हैं। आदि ग्रंथ हमारे चार वेद हैं। सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी ने वेदों के आधार पर ही की थी और चार वर्णों को भी कर्मों के आधार पर विभाजित किया था। इसके पश्चात् जो भी ग्रंथ इस संसार को मिले उन्हें ऋषि-मुनियों और महापुरुषों द्वारा ही रचा गया। किसी बात को अच्छे से समझाने के लिए भी हमें शास्त्रों का उदाहरण देना पड़ता है। सच और झूठ का फर्क भी शास्त्रों के द्वारा ही समझाया जाता है।

किन्तु आज के परिवेश में शास्त्रों का ज्ञान अब कितने लोगों को कितना है यह बता पाना नामुमकिन है। वैसे शास्त्रों की बातें अक्सर हम करते ही रहते हैं। शास्त्रों के ज्ञान के बिना शास्त्रों की बातें कागज की नाव की तरह ही हैं, जो भीड़ की भाषा ही बोलती है। ज्ञान कोई लोकतंत्र नहीं है। यहाँ कोई हाथ उठाने और भीड़ के साथ होने का सवाल नहीं है। लेकिन भीड़ को एक सुविधा है यह भ्रम पाल लेने की कि सत्य के लिए ऐसी कोई गारंटी और कसौटी नहीं है। बल्कि, सच्चाई तो यह है कि सत्य की शुरुआत ही नहीं हो पाती इस विश्वास के कारण कि दूसरे लोग बहुत होने की वजह से सही होंगे और मैं अकेला होने की वजह से कहीं गलत हो जाऊँ।

ज्ञान मुझे खोजना है, सत्य मुझे पाना है, जीवन मुझे जीना है, और मुझे स्वयं पर कोई विश्वास नहीं है। भीड़ पर अन्यों पर विश्वास है, तो फिर यह यात्रा कैसे हो सकती है? ये कागज की ही तो नाव हुई। मुझे होना चाहिए स्वयं पर विश्वास। मुझे अन्य पर, भीड़ पर विश्वास है, भीड़ जो कह देती है, उसी को मैं मान लेता हूँ। भीड़ अगर हिन्दुओं की है तो मैं एक बात मान लेता हूँ। भीड़ जैनियों की है तो दूसरी बात मान लेता हूँ। भीड़ कम्युनिस्टों की है, तीसरी बात मान लेता हूँ। भीड़ आस्तिकों की है, चैथी नास्तिकों की है, पाँचवीं भीड़ जो कहती है, वह मैं मान लेता हूँ। इस प्रकार से तो हम सब भीड़ के हिस्से तो हुए। अपने आपको कहाँ पहचान पाए। हम तो अभी मनुष्य ही नहीं हुए हैं क्योंकि मनुष्य होने की पहली माँग है भीड़ से मुक्ति।

शास्त्रों से ही हमें ज्ञान का बोध होगा नहीं तो कागज की नाव की सवारी करते रहेंगे और भवसागर को पार नहीं कर पाएंगे। भवसागर को पार करना है तो ज्ञान की नौका की सवारी करनी होगी। ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही मोक्ष की बात हम कर पाएंगे।

हमारे
उपनिषदों में भी लिखा है कि-
धर्मस्य दुर्लभो ज्ञाता सम्यग वक्ता ततोऽपि च।
श्रोता ततोऽपि श्रद्धावान कर्ता कोऽपि ततरू सुधीरू।।

अर्थात् धर्म को जानने वाला दुर्लभ होता है, उसे श्रेष्ठ तरीके से बताने वाला उससे भी दुर्लभ, श्रद्धा से सुनने वाला उससे दुर्लभ और धर्म का आचरण करने वाला सुबुद्धिमान सबसे दुर्लभ है। जिस दिन हम धर्म को जान जाएंगे उस दिन ज्ञान की नौका पर बैठकर भवसागर को पार कर जाएंगे, नहीं तो इस कागज की नाव पर बैठकर बीच मझधार में ही डूब जाएंगे।


रोशनलाल गोरखपुरिया
लेखक, आध्यात्मिक विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता

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