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अगर हम संशय का निवारण न करके झूठ को ज्ञान की अग्नि में नहीं जलाएंगे तो सच कभी निकलकर बाहर नहीं आएगा।
परमात्मा को पाने के लिए सच को जानों
कलयुग को अज्ञानता
की दलदल कहा गया है। इस दलदल को हमें समझना होगा, इस दल का या उस दल का, इस जाति का हो या उस जाति का, इस समाज का या उस समाज का, इस सम्प्रदाय का या उस सम्प्रदाय का, इन सब में धर्म कहीं नहीं आता क्योंकि हम अपने को सीमित सोच के दायरे से बाहर नहीं निकाल पाते। धर्म की मर्यादा होती है, कोई दायरा नहीं होता। मर्यादा हद को नहीं, ज्ञान को कहते हैं। जब तक धर्म का मर्म नहीं होगा तब तक इस दल और उस दल से हम एक दूसरे के विरोधी ही बन सकते हैं, लेकिन सहयोेगी कभी नहीं। धर्म तो समाज के उच्चकोटि के लोगों द्वारा स्थापित किया जाता है जिससे हम अपना और अपनों का कल्याण कर पाते हैं। हम अपने अंतकरण में छुपे हुए परमात्मा को जब प्राप्त कर लेंगे तो हमें किसी भी मोड़ पर उसे ढूँढने की जरूरत नहीं होगी, नहीं तो हम हर मोड़ पर उसको ढूँढते ही रहेंगे लेकिन वो मोड़ हमें कभी नहीं मिलेगा क्योंकि हम मोड़ की बजाय किसी डेरे के हो जाएंगे या बाड़े के हो जाएंगे या किसी खूँटे से बंध जाएंगे और किसी खूँटे से बंधे हुए हम स्वभाव के अधीन होकर पशु ही कहलाएंगे।
एक बार एक बुढ़िया बहुत बीमार थी। घर में वह अकेली थी इसलिए बहुत कठिनाई में थी। एक दिन सुबह-सुबह ही दो अत्यन्त
भद्र और धार्मिक दिखने वाली महिलाएं उसके पास आईं। उनके माथे पर चंदन था और हाथों में रुद्राक्ष की मालाएं। उन्होंने आकर उस बुढ़िया की सेवा शुरू कर दी और कहा कि परमात्मा की प्रार्थना से सब ठीक हो जाएगा। विश्वास शक्ति है और विश्वास कभी निष्फल नहीं जाता। बुढ़िया ने उनकी बातों पर विश्वास कर लिया। वह अकेली थी और अकेला व्यक्ति किसी पर भी विश्वास कर लेता है। वह पीड़ा में थी और पीड़ा में मनुष्य का मन सहज ही विश्वासी हो जाता है। उन अपरिचित महिलाओं ने दिनभर उस बुढ़िया की सेवा की। दिन भर मीठी-मीठी धार्मिक बातों के कारण बुढ़िया का विश्वास और भी बढ़ गया फिर रात्रि में उन महिलाओं के निर्देशानुसार वह एक चादर ओढ़ कर भूमि पर लेटी ताकि उसके स्वास्थ्य के लिए परमात्मा से प्रार्थना की जा सके। धूप जलाई गई। सुगंध छिड़की गई। एक महिला उसके सिर पर हाथ रखकर अबूझ मंत्रों का उच्चारण करने लगी और फिर मंत्रों की एक सुरीली ध्वनि देकर बुढ़िया को थोड़ी ही देर में सुला दिया। आधी रात को उसकी नींद खुली। घर में अंधकार था। उसने दीया जलाया तो पाया कि वे अपरिचित महिलाएं न मालूम कब की चली गई हैं। घर के द्वार खुले पड़े हैं और उसकी तिजोरी भी टूटी पड़ी है। विश्वास अवश्य ही फलदायी हुआ था लेकिन बुढ़िया को तो नहीं, उन धूर्त महिलाओं को। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्यांेकि विश्वास सदा ही धूर्तों को ही फलदायी हुआ है।
जबकि धर्म विश्वास
नहीं बल्कि विवेक का नाम है। वो अंधापन नहीं, आँखों का उपचार है। किंतु शोषण के लिए विवेक बाधा है और इसीलिए विश्वास का विष पिलाया जाता है। विश्वास के इस विष को ज्ञान और विवेक की आँखों से जब हम गुरू और संतजनों की बातों पर भरोसा करके उस परमात्मा जो हम सबके भीतर है, का ध्यान करेंगे तो हमारे सारे कार्य परमात्मा के ही कहलाएंगे। इसमें कोई संशय नहीं कि आत्मा के बिना जीव निष्प्राणी है। यही प्राण आत्मा को पोषित करता है और आत्मा के द्वारा ही प्राणों को पोषित किया जाता है। रामचरित मानस की एक चैपाई जिसमें गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है: सबसे पहले मैं ब्राह्मण को नमन करता हूँ क्योंकि ब्राह्मण सब संशयों का निवारण करता है। उसके बाद संतजनों को नमन करता हूँ। इस बात को साधारण तरीके से देखेंगे तो ब्राह्मण ने ब्राह्मण की पूजा करने के लिए कहा ये अहंकार को ही दर्शाता है। लेकिन जब ज्ञान की गहराई के अंदर उतरेंगे तो ये बात समझ में आ जाएगी कि ब्राह्मण की पूजा करने की बात गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखी जरूर थी लेकिन लिखवायी हनुमान जी ने थी। यानि हनुमान जी द्वारा ये कहा गया था कि ब्राह्मण कैसा भी क्यों न हो वो पूजनीय है। अगर हम संशय का निवारण न करके झूठ को ज्ञान की अग्नि में नहीं जलाएंगे तो सच कभी निकलकर बाहर नहीं आएगा। उदाहरण के तौर पर रामायण काल में माता सीता ने अग्नि से गुजरकर ज्ञान रूपी सच को प्रकाशित किया था।
जब तक सच को नहीं जानोगे तो परमात्मा
को किसी भी मोड़ पर प्राप्त नहीं कर पाओगे। जिस दिन सच को जान लोगे तो फिर उसे किसी मोड़ पर ढूँढने की जरूरत नहीं पड़ेगी बल्कि परमात्मा रूपी मंजिल खुद चलकर तुम्हारे पास आ जाएगी।
रोशनलाल गोरखपुरिया
लेखक, आध्यात्मिक विचारक,
सामाजिक कार्यकर्ता