सपने जो हम देखते हैं, वो तो है ही नहीं | रोशन लाल गोरखपुरिया

वो तो है ही नहीं, कहने का भावार्थ है कि संसार तो सपने की तरह है। निद्रा में लीन शरीर तो सो जाता है किन्तु मन नहीं। मन तो...

वो तो है ही नहीं  रोशन लाल गोरखपुरिया

वो तो है ही नहीं, कहने का भावार्थ है कि संसार तो सपने की तरह है। निद्रा में लीन शरीर तो सो जाता है किन्तु मन नहीं। मन तो कहीं कहीं अपनी यात्रा पर निकल ही जाता है लेकिन पहुँचकर भी वह कहीं नहीं पहुँचता, वहीं का वहीं रहता है। संसार के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है। इस संसार को खुली आँखों से हम देखते हैं लेकिन जब आँखें बंद कर लेते हैं तो संसार दिखना बंद हो जाता है। जबकि संसार तो वहीं का वहीं रहता है।

परमात्मा की इस माया को प्रकृति कहा जाता है और प्रकृति की माया को मन। जब हम इस मन से ऊपर उठते हैं तो फिर कुछ अलग हो जाते हैं, यानि बुद्धि के द्वारा इस संसार को जैसा हम समझते थे वो वैसा नहीं रहता, वो पूरी तरह से बदल जाता है। बुद्धि से ऊपर अहंकार है। अहंकार को पार करना नामुमकिन नहीं किन्तु मुश्किल अवश्य है। यही अहंकार हमें टुकड़ों में बांट देता है। ये अहंकार हमें उस परमात्मा से मिलने नहीं देता, जिसका कि ये संसार है। जिन सपनों को हम देखते हैं, वो तो है ही नहीं। हम इसी को सच मानकर भटकते रहते हैं जिस तरह से सपनों में मन भटकता है।

आचार्य रजनीश ओशो ने इस युग को कलयुग की बजाय सतयुग कहा है। गीता पढ़ने के बाद ओशो की बात सच प्रतीत होती है। हम बचपन को कभी भूलते नहीं हैं और उसकी तारीफ करते हैं जबकि बचपन पर अज्ञानता की परत चढ़ी होती है। बचपन में रहने वाली जिज्ञासा जवानी में कहीं खो जाती है। जिज्ञासा पोषित करने वाला बच्चा वृद्ध होकर मृत्यु से आलिंगन करता है कि मौत से डरता है।

शास्त्रों और संतों ने समाज को चार वर्णों में बांटा है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र और समझाने के लिए शरीर के प्रमुख हिस्सों, मुख को ब्राह्मण, भुजाओं को क्षत्रिय, उदर को वैश्य पांव को शूद्र बताया है। अज्ञानतावश हमने शूद्र को नीच कहकर अपमानित किया और समाज को ऊँच-नीच में बांटकर परमात्मा की बनायी हुई प्रकृति को दूषित करने का काम किया। जबकि चार वर्ण रामायण के चार भाइयों के समान है और परिवार पाँच पाण्डव की तरह उंगलियों के समान है। अज्ञानता की दलदल को जब तक हम पार नहीं करेंगे तब तक ज्ञान से विमुख होकर अज्ञान को ही पोषित करेंगे।

हर प्राणी माँ के गर्भ में मल में ही रहता है जन्म के बाद अज्ञानता की दलदल में पड़ा रहता है। अज्ञानता की दलदल से ऊपर आकर थल पर जाता है और थल पर आकर उसे जल का ज्ञान हो जाता है। इस तरह से मन को निर्मल करके धर्म रूपी गाय की पूँछ पकड़कर वैतरणी को पार कर जाएंगे तो कमल की तरह निर्लेप होकर उस परमात्मा के ज्ञान को संसार में प्रेम की एक नई परिभाषा देकर चले जाएंगे। संसार तो है ही नहीं जो कुछ है वो परमात्मा है। जो इसका या उसका नहीं बल्कि सबका होता है। जो सबका होता है, जब हम उसके हो जाते हैं तो उसका जो होता है वो हमारा भी हो जाता है। सीमाओं से रहित स्वार्थ से दूर प्रेम और भक्ति के द्वारा संसार के हर प्राणी में परमात्मा को देखकर इस संसार को अपना बना लेते हैं। जो सच है वो सही है। फिर एक दिन हम सपनों से दूर एक नए जहाँ को प्राप्त कर लेंगे।


रोशन लाल गोरखपुरिया
लेखक, आध्यात्मिक विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता
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