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- May 18, 2021
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जीवन एक अनसुलझी पहेली है। इस अनसुलझी पहेली को सुलझाने के लिए ज्ञान की जरूरत है और ज्ञान की प्राप्ति के लिए जीवन में ‘क्य...
जहाँ ‘क्यों’
नहीं वहाँ
‘ज्ञान’ नहीं रोशनलाल गोरखपुरिया
जीवन एक अनसुलझी पहेली है। इस अनसुलझी पहेली को सुलझाने के लिए ज्ञान की जरूरत है और ज्ञान की प्राप्ति के लिए जीवन में ‘क्यों’ का होना अत्यन्त आवश्यक है। ‘क्यों’
नहीं
लगाएंगे तो कतार में ही खड़े रह जाएंगे। कतार में खड़े रहने से ज्ञान नहीं मिल सकता, ज्ञान तो ‘क्यों’
लगाने
पर ही मिल पाएगा। संत कबीर ने जीवन के सार को समझाते हुए कहा था अगर तुम जानते हो कि तुम जिंदा हो, तो जल्दी से जीवन के सार को प्राप्त कर लो। जिंदगी कुछ पल की ही मेहमान है और इससे तुम दूसरी बार नहीं मिल पाओगे। इन पंक्तियों को महज पढ़ने मात्र से ही ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी। जब-तक हम पंक्तियों को ‘क्यों’
की
दृष्टि से नहीं देखेंगे, तब-तक हम ज्ञान से अनभिज्ञ ही रहेंगे।
सूर्य आदि है अनादि है। सूर्य जहाँ होता है, केवल वही पर उसका प्रकाश होता है। जहाँ सूर्य नहीं होता, वहाँ उसका प्रकाश भी नहीं होता। सूर्य हमेशा ही रहता है, भले ही वह हमें दिखाई न दे। इसी प्रकार से परमात्मा भी हर समय हर जगह मौजूद होते हैं। परमात्मा की आत्मा समान रूप से हर जीव में विद्यमान रहती है, हर प्राणी अंहकार रुपी अज्ञान के कारण इससे अनजान रहता है, क्योंकि परमात्मा का ये जीव हमेशा सांसारिक इच्छाओं के अधीन रहकर अपना जीवन बिताता है। इस कारण परमात्मा की आत्मा का ज्ञान होते हुए भी प्राणी अज्ञानता के अंधकार में डूबा रहता है। इस संसार में मुख्य रुप से चार धर्म माने गए हैं। परन्तु इनमें से सनातन कौन सा है? उस धर्म के बारे में हम कितना जानते हैं? जब तक इसके बारे में नहीं जानेंगे, भला उस परमात्मा के बारे में कैसे जान पाएंगे? भगवत गीता भगवान के द्वारा कही गई है परन्तु प्रश्न रूपी ‘क्यों’ तो अर्जुन ने ही लगाया था। अर्जुन ने कहा कि मैं केवल इस संसार के सुखों की प्राप्ति के लिए अपने पूजनीय गुरूजनों और प्रियजनों को क्यों मारूँ? इससे मुझे दुख ही तो मिलेगा। मैं इस दुःख के आगे स्वर्ग के सुख को भी तुच्छ मानता हूँ। अर्जुन के इसी क्यों ने परमात्मा के ज्ञान को संसार में उतारा। आज अगर गीता का ज्ञान नहीं होता तो पूरा संसार अज्ञानता के अंधकार में वैसे ही डूबा रहता जैसे सूर्य के प्रकाश के बिना रात के अंधकार में प्राणी डूबा रहता है। इस ज्ञान को अलग-अलग धर्मों के लोगो ने अपने-अपने तरीके से कहा है। निराकार और साकार का विवाद सदियों से चला आ रहा है। सतयुग से लेकर आज कलयुग तक लाखों सालों में मनुष्य शरीर को पाने के बाद भी परमात्मा को पाने की बजाए केवल संसार के मिथ्या सुख को पाने के लिए भाई ही भाई के खून का प्यासा रहा है। गीता ने जो हमें ज्ञान दिया वो दुर्भाग्यवश कुछ ही लोगों तक सिमटकर रह गया। भगवान ने तो जग के कल्याण के लिए ही भगवत गीता सुनाई थी। लेकिन स्वार्थ और अज्ञानता के कारण इस अमूल्य धरोहर को भी हमने सीमित कर दिया और भगवत गीता एक धर्म विशेष की होकर रह गयी। आज के इस आधुनिक युग में रामायण सिर्फ हिन्दूओं की, बाइबल ईसाइयों की, कुरान मुसलमानों की और गुरूग्रंथ साहिब जी सिक्खों की कही जाने लगी हैं, इसके पीछे केवल अज्ञान ही तो है। धर्म ग्रंथ व शास्त्र और इनमें छिपा ज्ञान किसी एक धर्म विशेष के लोगों के लिए नहीं बल्कि संसार के तमाम लोगों के कल्याण के लिए होना चाहिए। छोटी सोच ने हमें छोटा बना दिया है। अगर हम केवल परमात्मा की बात करेंगे तो आकाश से भी ऊंचे हो जाएंगे। स्वार्थ की बात करेंगे तो संसार के किसी कोने में भी स्थान नहीं मिल पाएगा।
संसार में
सूर्य, चंद्रमा,
और अन्य
ग्रह परमात्मा
की बनाई
हुई सृष्टि
के अधीन
होकर अपना-अपना
कार्य करते
हैं परन्तु
परमात्मा ने
मनुष्य को
ही नवीन
कर्म करने
का अधिकार
दिया है।
कलयुग में
जब भय
के कारण
लोग धर्म
की मर्यादाओं
और समाज
की परंपराओं
को भुलाकर
अधर्म को
ही धर्म
मानने लगे
थे और
लकीर के
फकीर बनकर
झूठ को
ही सच
कहने लगे
थे, तब
गुरू गोविन्द
सिंह जी
ने आकर
धर्म की
मर्यादाओं को
पुनः स्थापित
कर सिक्ख
परम्परा में
पंज प्यारों
को सिंह
की उपाधि
दी थी।
उसके पीछे
उनका तात्पर्य
यह था
कि संसार
के सभी
जीव लकीर
पर चलते
हैं। एक
सिंह ही
है जो
अपने लिए
नया रास्ता
बनाता है।
कहने का
भावार्थ यह
है कि
जब हम
जिज्ञासु बनकर
क्यूँ लगाएंगे
तब क्यू
में न
खड़े होकर
मंजिल के
लिए नया
रास्ता बनाएंगे।
ये रास्ता
और कहीं
नहीं सीधा
परमात्मा की
ओर लेकर
जाएगा।
रोशनलाल गोरखपुरिया
लेखक, आध्यात्मिक विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता