तो ये गुरु, परमात्मा से मिला देगा | रोशन लाल अग्रवाल

ये गुरू ही हैं जिसके माध्यम से हम परमात्मा को जान सकते है। गुरू गोविन्द सिंह जी ने कहा था कि- मैं आपे गुरू आपे चेला।

शास्त्र क्या है और ग्रंथ क्या। इतिहास के पन्नों में लिखी हुई इबारत को हम किताबें कहते हैं। जब तक हम गुरू की परिभाषा को परिभाषित नहीं करेंगे तब तक हम ज्ञान सेवं चित रहेंगे। ये गुरू ही हैं जिसके माध्यम से हम परमात्मा को जान सकते है। गुरू गोविन्द सिंह जी ने कहा था कि-  मैं आपे गुरू आपे चेला।

भौतिकवाद की इस अंधी दौड़ को छोड़कर जब तक हम अंदर की यात्रा नहीं करेंगे तब तक परमात्मा के प्रेम से वंचित ही रहेंगे। लोग सम्प्रदाय और समाज की परिभाषा अपने-अपने तरीके से करते हैं। मेरे अपने विचार से एक गुरू,  एक परमात्मा, एक किताब, ये साम्प्रदायिकता को पोषित करते है, धर्म को नहीं। अनेक गुरू, अनेक भगवान, अनेक ग्रंथ और अनेक शास्त्र ये समाज को परिभाषित करते हैं और समाज की आत्मा धर्म है। भारत आदि-अनादिकाल से बहु देववादी, एक में अनेक और अनेक में एक को देखने वाला देश रहा है। भारत की आत्मा बसती है सर्व धर्म समभाव में।

बृहदारण्यक- उपनिषद्के पंचम अध्याय में एक सुंदर कथा है। प्रजापति ब्रह्म जी की तीन संतान देव, मनुष्य और असुर उपदेश ग्रहण करने गए। ब्रह्म जी ने तीनों को एक अक्षर दका उपदेश दिया और उनसे पूछा कि इसका अभिप्राय समझ लिया? देवताओं ने उत्तर दिया हमने यह समझा है कि दमइन्द्रियों को दमन करो। दमयानि अपनी इन्द्रियों को बस में करना। ब्रह्म जी ने कहा कि ठीक समझ गए। मनुष्यों ने कहा कि दान करो ब्रह्म जी ने कहा हां,  तुम भी समझ गए। फिर असुरों से पूछने पर उन्हों ने कहा – हमने यह समझा हैं कि – दया करो। ब्रह्म जी ने उनको भी सही बतलाया। इस प्रकार तीन शिक्षाएं मिलीं। दम,  दान और दया अर्थात् इन्द्रियों का दमन करो, दान करो और दया करो।

जैसा कि ऊपर बताया गया है कि ब्रह्मा जी की तीन संतान है देव,  मनुष्य और दानव या असुर, परंतु अपने संस्कारों से देव श्रेष्ठ है,  मनुष्य साधारण है और असुर निकृष्ट है। जैसे संस्कार पूर्व जन्म में होते है वैसा ही स्वभाव इस जन्म में होता है परंतु जो ईश्वर के उपदेश को सुनते है, उस पर ध्यान देतेहै,  उनकी उन्नति हो जाया करती है। असुर इसी उपदेश के प्रभाव से मनुष्य बनता है और मनुष्य देवता बन जाता है। असुर वे है जो अपने लाभ के सामने किसी दूसरे के लाभ की परवा ही नहीं करते। स्वार्थ सिद्धि ही उनका परम ध्येय है। अपने लाभ के लिए वे दूसरे को मारने-लूटने अथवा अन्य प्रकार से हानि पहुंचाने में जरा भी संकोच नहीं करते है। एक कसा  चार पैसे के लिए पशुओं को मार डालता है और उसके मांस को बाजार मे बेचता है। यह है कसाई का असुरपन। एक मनुष्य जीभ के स्वाद के लिए एक पक्षी की गर्दन मरोड़ देता है। यह है उस मनुष्य का असुर पन। रावण ने सीता हरण के समय कब सीता जी के कष्टों की परवाह की थी। भरी सभा में द्रौपदी को अपमानित करके दुर्योधन ने असुरपन का ही परिचय दिया था। इन क्रुर-ह्दय प्राणियों के लिए दया से बढ़कर उत्तम और कौन उपदेश हो सकता है?  इनका मानसिक रोग ही निर्दयता है। ये दूसरे प्राणी को अपने-जैसा नहीं समझते। इसका उपचार दया है। दूसरों के कष्ट दूर करने का स्वभाव आ जाए तो उस भाव से हमारी आत्मा उच्चय हो जाती है, और हम में विशालता के भाव आ जाते है। यहीं यज्ञ है…. इसी के प्रभाव से मनुष्य देवता बन जाते है।

गीता में भगवान ने कहा है कि न मैं तप से, न मैं यज्ञ से,  न मैंदान से और न ही वेदों के ज्ञान से प्राप्त हो सकता हूं। मेरी प्राप्ति अनन्य भक्ति से ही हो सकती है जो मुझको भजता है उसको मैं सहज ही प्राप्त हो जाता हूं। कहने का भावार्थ है कि हम जब अपने स्वार्थ को छोड़कर निष्काम भाव से परमात्मा का कार्य करेगें तो कर्मों से छूटकर उस परमतत्व को प्राप्त हो जाएंगे।

कहने का भावार्थ है कि खोज ने से ही पमात्मा को पाया जा सकता है,  किसी के पीछे चलने से नहीं। यानि परम्पराए और परिपाटी हमें स्वर्ग और नरक में तो ले जा सकती है किंतु परमात्मा को प्राप्त नहीं करा सकती है। जीवन तो पहेली है जो बुझाई जा सकती है, यानि जीवन को जीना सिखा सकती है। जिस दिन हम मानव कल्याण में अपने आपको न्यौछावर कर देंगे,  उस दिन मनुष्य से देव बनकर स्वर्ग को प्राप्त कर सकेंगे। परमात्मा एक गूढ़ रहस्य है और उसके रहस्यों को आज तक कोई जान नहीं पाया है। लेकिन जब हम स्वयं को गुरु बना लेंगे तो ये गुरु,  परमात्मा से मिला देगा।

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रोशन लाल अग्रवाल
लेखक | आध्यात्मिक
विचारक | सामाजिक कार्यकर्ता

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