बदलती सोच का बदलता समाज | रोशनलाल गोरखपुरिया

इससे यह स्पष्ट होता है कि समाज का निर्माण समाज के श्रेष्ठ व्यक्तियों के आचरण पर निर्भर करता है। समाज में अगर कुरितियों क...

बदलती सोच का बदलता समाज


मन
भर ज्ञान से कण भर आचरण श्रेष्ठ है, इसी प्रकार सच के बारे में हमारे संत-महात्माओं के द्वारा हमेशा कहा गया है कि सच को बांटा नहीं जा सकता, सच कोई वस्तु नहीं है। सच तो परमात्मा है, वो एक था, एक है और एक ही रहेगा, क्योंकि वो आदि है अनादि है। इसी प्रकार धर्म भी सच है जिसे बदला जा सकता और ही बांटा जा सकता है। बदलती सोच है, धर्म नहीं। देश के मौजुदा विद्रोह को देखकर मन बहुत दुखी होता है युवाओं की राजनीतिक समझ नारेबाजी और उपद्रव में दम तोड़ रही है। हिंदुस्तान में युवा पीढ़ी को राजनीतिक समझ के लिए बोध पैदा करना होगा। कैसा दुर्भाग्य है कि एक राजनीतिक पार्टी खड़ी होती है तो चुनाव चिन्ह् पर जीत जाती है चिन्ह् बहुत महत्वपूर्ण है गांव में जाकर समझाया जा सकता है कि अगर बैल रहेंगे तो तुम खेती कैसे करोगे? और बेचारा किसान सोचता है कि बात तो ठीक है अगर बैल रहे तो खेती  कैसे करेंगे। बैल की जोड़ी को वोट देना चाहिए। जहां राजनीतिक चेतना कम हो वहां युवाओं में राजनीतिक परिपक्वता का अभाव होना स्वभाविक है। युवाओं को आत्मचिंतन और आत्ममंथन करके ही सच और गलत का निर्णय लेना चाहिए ना कि भीड़ का बाशिंदा बनकर।

आदि-अनादि काल से धर्म जो परमात्मा ने बनाया था, वो आज अज्ञानता के कारण इस धरा से लुप्त होने के कगार पर खड़ा है। इस कलयुग में अगर देखें तो धर्म की बात करना भी बेमानी सी नजर आती है। अक्सर कुछ विद्वान कहे जाने वाले लोगों से यह कहते हुए सुना है कि जाति नहीं बदलती धर्म बदल जाता हैं। अब यक्ष प्रश्न यह उठता है कि जब जाति ही नहीं बदलती तो उसका धर्म कैसे बदल जाएगा। इस बात पर कभी किसी ने विचार करने का प्रयास नहीं किया। जैसे धोबी का गधा हो या फिर कुम्हार का, बोझ वहीं रहा पर आस्थाएं बदल गई। धर्म वहीं रहा परन्तु कर्म बदल गया।

इस संसार में परमात्मा ने सभी प्राणियों को जीने के लिए बराबर का अधिकार दिया है। किन्तु अज्ञानतावश हम एक दूसरे से लड़ते ही रहे। ज्ञान के अभाव के कारण केवल अपने को ही श्रेष्ठ समझते रहे। परमात्मा की दृष्टि में सभी एक समान हैं। उसकी नजर में कोई छोटा है और कोई बड़ा। जो परमात्मा को चाहते हैं परमात्मा उसको उससे कहीं अधिक चाहते हैं। जो परमात्मा को जानना चाहते हैं परमात्मा उसकी जानकारी में आने से पहले ही उसके करीब जाते हैं। इस जानने और मानने में जो अंतर दिखाई देता है वही सूक्ष्म ज्ञान है। इस सूक्ष्म ज्ञान को जाने बिना ये संसार ऐसे ही लड़ता रहा है और जब इस ज्ञान की अनुभूति हो जाएगी, तब संसार में सिर्फ प्रेम और भाई-चारें की ही बात होंगी, राग और द्वेष की नहीं।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनरू।

सयत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।


अर्थात
श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करते है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते है।
वह जो भी कुछ प्रमाण कर देते है, दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते है।

इससे यह स्पष्ट होता है कि समाज का निर्माण समाज के श्रेष्ठ व्यक्तियों के आचरण पर निर्भर करता है। समाज में अगर कुरितियों का शिकार होता है तो इसकी जिम्मेदारी समाज के श्रेष्ठ व्यक्तियों पर ही जाएगी। समाज के श्रेष्ठ व्यक्तियों का ये परम कर्तव्य बनता है कि वो समाज को ज्ञान और गुणों से पोषित करें। वैसे देखा जाए तो रूप बदलता है गुणों का, ज्ञान का नहीं। ज्ञान तो निराकार परमात्मा की तरह ही होता है जो आत्मा के रुप में हर प्राणी के शरीर में वास करता है। गुण प्रकृति के होते हैं, परमात्मा के नहीं। परमात्मा तो निर्गुण होते हैं। इसी ज्ञान के द्वारा हम निराकार परमात्मा को साकार रुप में प्राप्त कर पाएंगे। फिर मंदिर में पूजा करें या मस्जिद में इबादत, चर्च में प्रार्थना करें या फिर गुरुद्वारे में अरदास, यह आपकी अपनी आस्था और विश्वास की बात है। निष्ठा तो सबकी एक परमात्मा में ही है। इसमें कहीं पर भी धर्म बदलता दिखाई नहीं देता। जब ज्ञान की प्राप्ति हो जाएगी तो टुकड़ों में बंटा ये संसार आसमान की तरह एक ही नजर आएगा। इसमें कहीं कोई संशय नहीं है कि परमात्मा सबके हैं और सब उसके हैं।


रोशनलाल गोरखपुरिया
लेखकआध्यात्मिक विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता

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