मंजिल तो तू ही है | रोशन लाल गोरखपुरिया

अक्सर चर्चा के दौरान हम अलग-अलग धर्मो की बात करते हैं लेकिन परमात्मा को एक बताते हैं किंतु ये नहीं बता पाते कि आखिर परमा...


  अक्सर चर्चा के दौरान हम अलग-अलग धर्मो की बात करते हैं लेकिन परमात्मा को एक बताते हैं किंतु ये नहीं बता पाते कि आखिर परमात्मा है कौन? जिन्होंने ये जान लिया वो तो भगवान के हो गए, जिन्होेंने इसे जाना, क्या उनके जान लेने से हम जान पाए? असंभव, ये हो ही नहीं सकता क्योंकि प्यास तो पानी पीने से ही बुझती है और भूख खाना खाने से ही मिटती है। जब तक स्वयं परमात्मा से साझात्कार नहीं करेंगे तब तक हम उस एक को नहीं जान पाऐंगे। सुनी-सुनाई बातों या देखा-देखी कह देने से उस परमात्मा को नहीं जाना जा सकता।

  निम्मलिखित कहानी ने सपना और संसार के यर्थाथ को अर्थ देने की कोशिश की है। एक सम्राट का युवा पुत्र बहुत बीमार था। उसका एक ही बेटा था जो मरणाश्य्य पर पड़ा था। चिकित्सकों ने कहा कि बचने की कोई उम्मीद नहीं। संभावना थी कि रात में ही उसके जीवन का दीया बुझ जाएगा। सम्राट रात भर जागता रहा। सुबह होते-होते उसकी झपकी लग गई, सम्राट अपनी कुर्सी पर बैठा-बैठा ही सो गया। सोते ही भूल गया उस बेटे को, जो सामने बिस्तर पर बीमार पड़ा था। उस महल को भी, जिसमें वो बैठा था, उस राज्य को भी जिसका वो मालिक था। उसे सपना आया कि मैं सारी पृथ्वी का मालिक हूं। उसके बहुत सुंदर बारह बेटे हैं। स्वर्ण जैसी उनकी काया है, बहुत स्वस्थ, बहुत बुद्धिमान। सारी पृथ्वी पर फैला हुआ है। राज्य, स्वर्ण के महल हैं, हीरे-जवाहरातों की सीढ़ियां है और तभी उस बाहर लेटे हुए बेटे की सांस टूट गई। पत्नी छाती पीट कर रोने लगी। रोने से सम्राट की नींद खुल गई। खो गए वे सपने के स्वर्ण महल, खो गए वे बारह बेटे, खो गए चक्रवती का बड़ा राज्य! देखा तो बाहर बेटा मर चुका है, पत्नी रो रही है। लेकिन उसकी आंखों में आंसू नहीं आए, ओंठो पर हंसी आ गई! पत्नी कहने लगीरू क्या तुम पागल हो गए हो? बेटा मर गया है और तुम हंस रहे हो! सम्राट कहने लगा मुझे हंसी किसी और बात से आ रही है। मैं चिंता में पड़ गया हूं कि किन बेटों के लिए रोऊं? अभी-अभी बारह बेटे थे मेरे, स्वर्ण के महल थे, बड़ा राज्य था। मेरा सारा वह राज्य छिन गया, मेरे वे बेटे छिन गए! आंख खोलता हूं, तो वे सब खो गए है! और यह बेटा, जब तक मेरी आंख बंद थी, खो गया था। मुझे याद भी नहीं थी कि मेरा कोई बेटा है जो बीमार पड़ा है। जब तक वे बारह बेटे थे, इस बेटे की मुझे कोई याद न थी! और अब जब यह बेटा दिखाई पड़ रहा है, तब वे बारह बेटे खो गए है! अब मैं सोच रहा हूं कि मैं किसके लिए रोऊं? उन बारह बेटों के लिए, उन स्वर्ण महलों के लिए, उस बडे राज्य के लिए या इस बेटे के लिए? और मुझे हंसी इसलिए आ गई कि कही दोनों ही सपने तो नहीं हैं- एक आंख बंद का सपना और एक आंख खुले का सपना। उपरोक्त कहानी हमें नींद से जगा रही है क्योंकि जागा हुआ व्यक्ति ही जागृत समाज का निर्माण कर सकता है, जहां न आकर्षण हो ना विकर्षण हो, ना राग हो ना द्वेष हो। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है 

ज्ञेत्ररू स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काड्.क्षति ।
निद्वेन्द्वो हिृ महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।

हे अर्जुन जो पुरूष न किसी से द्वेष करता है और न ही किसी से आकांक्षा करता है वह निष्काम कर्मयोगी सदा सन्यांसी ही समझने योग्य है क्योंकि राग और द्वेष जैसे विचारों से मुक्त हुआ पुरूष सुख पूर्वक संसार रूप बंधन से मुक्त हो जाते है। अर्थात् वो मंजिल को प्राप्त हो जाता है।


रोशन लाल गोरखपुरिया
लेखक, आध्यात्मिक विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता 


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